बनते आए हैं यहाँ, हम सदियों से ‘फूल”।
उनके हिस्से फूल हैं, हमको हैं बस शूल॥
मंत्री जी का हर बज़ट, बना रहा है ‘फूल’।
कुछ ‘चतुरों’ के ही लिए, होता सब अनुकूल॥
मूर्ख बनाकर प्यार से, ले लेते हैं वोट।
होरी के तन पर भले, फिर न बचे लंगोट॥
‘अलगू’ ‘जुम्मन’ मूर्खता, करते हैं हर बार।
इनमें चलती जूतियाँ, उनका कारोबार॥
काले धन की वापसी,’अच्छे दिन’ की आस।
वे कहते हैं वायदा, ये कहते परिहास॥
छिपा हुआ हर मूर्ख में, इक उद्भट विद्वान।
कालिदास की जिंदगी, देती यही बयान॥