
By Jayjeet
यह उस बच्चे की कहानी है जो 70 साल तक एक शेल्टर होम में बंद रहा। उसे जो भी चाहिए होता, उसी बंद शेल्टर होम में दे दिया जाता। भूख लगती तो उसे 2 रोटी दे दी जाती। दूध मांगता तो चाय दे दी जाती। धीरे-धीरे उसने 5 रोटी की भूख को 2 रोटी के साथ एडजस्ट करना सीख लिया। चाय को ही वह दूध समझता…कुल मिलाकर वह शेल्टर होम को अपना घर समझता और शेल्टर होम वालों को अपना संरक्षक।
और यह चलता रहा, चलता रहा….चलता रहा….
और एक दिन शेल्टर टूट गया… शायद तोड़ दिया गया। वह बच्चा सड़क पर आ गया। पहली बार उसने सड़क देखी, सड़क किनारे ऊंची-ऊंची बिल्डिंग्स देखी। सड़कों पर वाहनों की रेलम-पेल देखी। वह घबरा गया, वह डर गया। वह डरने लगा। उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। तेजी से कारें उसके बाजू से निकलतीं। उसे ऐसा महसूस होता कि कारों में बैठे लोग उसका मजाक उड़ा रहे हैं। फिर बाइक्स पर कुछ लोग निकलते। हाथों में त्रिशुल-तलवार लहराते। उन्हें देखकर तो वह और भी डर जाता। वे जब उस डरे हुए बच्चे को देखते तो उस पर फब्तियां कसते। उसे त्रिशुल दिखा-दिखाकर और डराते। बच्चा डरता जाता, डरता जाता…
उसे डरा हुआ देखकर अब हर कोई डरा रहा था।
शेल्टर होम वाले अब भी उसके पीछे-पीछे चल रहे थे, पता नहीं क्यों! खुद का तो ठिकाना नहीं था, पर बच्चे को वे छोड़ नहीं रहे थे। वे आपस में बात करते- देखो तो सड़क पर बच्चा कितना डरा हुआ है, है ना? हमें इसके लिए अलग से पगडंडी बनाने की मांग करनी चाहिए ताकि उसे सड़क पर चलने की नौबत ही न आए। न सड़क पर चलेगा, न डरेगा।
पर …. पर…. अब आगे क्या?
उफ, कहानी तो यहीं अटक गई है, क्योंकि इस कहानी का जो मूल पात्र यानी बच्चा है, वह चुप है। तो अब क्या करें?
आइए कहानी के सूत्रधार को पिक्चर में लाते हैं। हो सकता है शायद इससे कहानी आगे बढ़े।
सूत्रधार : बच्चा, डर लग रहा है?
बच्चा : हां, सब पहली बार देख रहा हूं। दूसरों की इस सड़क पर पहली बार चल रहा हूं ना, तो डर लग रहा है कि कोई मुझे सड़क से नीचे न गिरा दे।
सूत्रधार (उसे माइक देते हुए) : ये लें। जोर से बोल, यह सड़क किसी के बाप की नहीं है।
बच्चा (घबराते हुए) : पर कैसे बोलूं? मुझे डर लगता है। ये लोग मुझे मार डालेंगे।
सूत्रधार : बेटा, नहीं बोलेगा तो डरते-डरते यूं ही मारा जाएगा।
अब क्या करता वह बच्चा। तो बोलना पड़ा माइक पर – यह सड़क किसी अकेले के बाप नहीं है। हम सबके बापों की है…
बच्चे ने सूत्रधार के वाक्य को जाने-अनजाने में थोड़ा इम्प्रोवाइज कर दिया था। और इससे बच्चे के चेहरे पर आत्मविश्वास बढ़ गया था। उसकी इस आवाज को सुनकर उन दो-चार बाइक्स वालों का बैलेंस बिगड़ते-बिगड़ते बचा जिनके हाथों में त्रिशुल था। उन्होंने त्रिशुल को बैग में भरा, स्मार्टफोन निकाला और उस पर बात करते-करते आगे निकल गए। बच्चे को महसूस हुआ कि कारों में बैठे लोग उसे देखकर मुस्कुरा रहे हैं। वह भी मुस्कराया।
शेल्टर होम वाले अब भी उसके पीछे-पीछे हैं। बल्कि और उसके और करीब आ गए हैं। उन्होंने यह पूरा वाक्या देखकर तालियां बजाई। एक बोला- बहुत बढ़िया। तुम डरना नहीं, हम तुम्हारे साथ हैं। हम तुम्हारे लिए पगडंडी बनाने की मांग करेंगे। फिर तुम्हें इस सड़क पर चलने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। पगडंडी तुम्हारी होगी, केवल तुम्हारी।
बच्चा कन्फ्यूज है। अभी तो उससे कहा गया कि यह सड़क उसकी भी है। फिर ये अलग से पगडंडी क्यों?
सूत्रधार ने उसका कंधा थपथपाया। बोला : सड़क किनारे तुम्हें वह पत्थर दिख रहा है?
बच्चा : हां
सूत्रधार : उसे उठा लें।
बच्चे ने पत्थर उठा लिया – अब क्या करुं?
– ये जो पीछे शेल्टर होम वाले खड़े हैं ना, उनके सिर पर दचक दें।
– क्यों?
– क्योंकि जब तक ये तुझे पकड़े रहेंगे, तब तक तू यूं ही डरता रहेगा। जब तक तू डरता रहेगा, तब तक लोग तुझे डराते रहेंगे। क्योंकि डर से डर पैदा होता है, हिम्मत से हिम्मत। जिस दिन तूने डरना छोड़ दिया, उस दिन तेरी हिम्मत बढ़ाने वाले सैकड़ों लोग तेरी तरफ चले आएंगे। तो चल, पीछे मुड़, दे मार पत्थर….
वह पीछे मुड़ा। लेकिन वहां कोई न था। बस दो लंगोट पड़ी हुई थी। भागते-भागते शेल्टर होम वाले लंगोट वहीं छोड़ गए थे।
बच्चे ने उन बदबूदार लंगोट को पैर के अंगूठे से किनारे किया… और सड़क पर आगे बढ़ चला। पूरी हिम्मत के साथ… आत्मविश्वास के साथ।
डर गायब था, उसे डर का एहसास दिलाने वाले तो पहले ही भाग चुके थे। डराने वाले भी अब उसके साथ थे…