
By A. Jayjeet
नई दिल्ली। हरिशंकर परसाई की आत्मा ने खुदकुशी कर ली है। इस बात का खुलासा तब हुआ, जब उनका एक सुसाइड नोट सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। उनकी आत्मा ऊपर से नीचे कब आई और कब सुसाइड करके वापस चली गई, इसकी किसी को कानो-कान भनक नहीं लग सकी। इस बीच, पुलिस ने यह कहकर मामले की जांच करने से इनकार कर दिया है कि इस ‘अज्ञात’ आत्मा के केस में उसे ‘कुछ भी’ मिलने की उम्मीद नहीं है। इसलिए वह ऐसे आलतू-फालतू के मामलों में टाइम खोटी नहीं करेगी।
परसाईजी की आत्मा ने खुदकुशी क्यों की, इसका पूरा खुलासा उनके इस भारी-भरकम सुसाइड नोट से होता है। हम यहां उनके इस सुसाइड नोट को हूबहू पेश कर रहे हैं:
पिछले 25 साल से मैं ऊपर आराम की जिंदगी जी रहा था। शरदजी साथ में थे ही। सात-आठ साल पहले श्रीलाल शुक्ल भी आ गए थे। हमने देवी-देवताओं की नाक में दम कर रखा था। मैं बता दूं कि धरती पर देवदूतों के बार-बार आने-जाने का असर ऊपर भी पड़ा है। नीचे की गंद ऊपर भी आ गई है। पार्टी-पॉलिटिक्स यहां भी हो गई है।… इंद्र का अलग गुट है, फलाने का अलग…। क्या-क्या होता है, बता नहीं सकता। पर हमें तो मजे आ गए। अगर सिस्टम में गंद नहीं हो तो हम व्यंग्यकारों का क्या काम?
खैर, एक दिन शरद ने छेड़ दिया। बोला- नीचे की दुनिया और भी बढ़िया हो गई है। लिखने के लिए खूब माल-मसाला मिल सकता है। अब तो सोशल मीडिया भी है। फर्राटे से भागेंगे तुम्हारे व्यंग्य। एक बार नीचे हो आओ। वैसे भी अब वहां ऐसा कोई बचा नहीं जो दम से लिख सके।
पता नहीं कौन-सी वह मनहूस घड़ी थी कि मैं शरद की बातों में आ गया। एक देवदूत से सेटिंग करके नीचे उतर गया। मैं बड़े मुगालते में था। लेकिन सुसाइड करने से पहले अब मुझे कुछ-कुछ याद आ रहा है कि जब मैं नीचे आने के लिए तैयार हो रहा था तो शरद और श्रीलाल कनखियों से एक-दूसरे को देखकर कुटिल तरीके से मुस्कुरा रहे थे। दोनों ने एक-दूसरे को तालियां भी ठोंकी थीं, ऐसा मुझसे सोमरस की बोतल लेते हुए देवदूत ने बताया था। सब स्सालों की प्लानिंग थी.. पर नीचे सोशल मीडिया पर अपने व्यंग्य वायरल करवाने के फेर में मैं उनकी यह शैतानी समझ ही नहीं पाया।
खैर, धरती पर सकुशल उतर तो गया, लेकिन अब व्यंग्य लिखने के लिए कोई प्लेटफॉर्म तो हो। तो उसकी तलाश में मैं एक अखबार के दफ्तर में पहुंचा। सोचा यहीं से शुरुआत की जाए। अखबार के दफ्तर भी अब कारपारेट कंपनियों जैसे हो गए। संपादक का पता पूछते हुए मैं उसकी कैबिन की तरफ बढ़ा। लैपटॉप खोले हुए क्लर्क टाइप के जर्नलिस्ट्स मुझे देखे जा रहे थे। खैर, किसी तरह ढूंढते-ढांढते संपादक के कैबिन में पहुंचा।
मैंने कहा – मैं हरिशंकर परसाई।
हूं, कौन?
मैं, वही हरिशंकर… परसाई…
अच्छा-अच्छा, बैठिए। तो आपको मंत्रीजी ने भेजा। क्या करें आजकल, रेवेन्यू और लाइजनिंग भी देखनी पड़ती है। मैं हमारे जीएम से मिलवा देता हूं। आप अपनी डील कर लीजिएगा। हां, मैं उसमें कहीं नहीं रहूंगा। अपन तो बस खबर तब सीमित रहते हैं।
मैंने कहा- समझा नहीं, मैं तो परसाई हूं…
हां, समझ गया, राज इंडस्ट्रीज के पार्टनर के साले साहब। आप जीएम साहेब से बात कर लीजिए। आपकी खबर मैं देख लूंगा। चिंता मत कीजिए। मामला सेट हो जाएगा।
मैंने फिर कहा – मैं हरिशंकर परसाई, व्यंग्यकार।
तो आप राजशंकर परसाई जी नहीं हो? पहले बताना था।… क्या नाम बताया आपने?
हरिशंकर परसाई, व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई…
अच्छा, परसाईजी, पर वे तो शायद अब नहीं हैं.. पर आप खुद को हरिशंकर परसाई कहकर किसे बना रहे हैं?
मैं व्यंग्य लिखना चाहता हूं…।
भैया, वैसे तो उन परसाईजी ने भी लिखकर क्या उखाड़ लिया था? और अब आप क्या उखाड़ लेंगे?
अब तो व्यंग्य लिखने की गुंजाइश ही गुंजाइश है। माहौल ही ऐसा है। – मैंने खुद को जस्टीफाई करने की गरज से कहा। अपने ऊपर उसके कमेंट को खून का घूंट बनाकर निगल गया।
अरे सर, मीडिया में व्यंग्य के लिए जगह कहां है? और वैसे भी अब व्यंग्य-सयंग्य पढ़ता कौन है? …खैर, अब आए हैं तो चाय पीकर जाइएगा…। मैं जरा मीटिंग में जा रहा हूं…।
मैं चाय पिए बगैर ही वहां से निकल गया। लगा कि पहले खुद एक व्यंग्य लिखकर बात करनी चाहिए। व्यंग्य पढ़कर तो कोई भी छापने के लिए तैयार हो जाएगा। मेरा मुगालता कम नहीं हुआ था। इसी मुगालते में मैं एक व्यंग्य लिखकर एक दूसरे अखबार के दफ्तर में पहुंचा।
मैं हरिशंकर परसाई…।
अच्छा परसाईजी, आइए-आइए…। … मुझे यह जानकर संतोष हुआ कि संपादक ने पहचान लिया।
हमने तो आपके काफी व्यंग्य पढ़े हैं : जीप पर सवार इल्लियां, क्या धांसू लिखा था।…
मैंने कहा- यह तो शरदजी का है।
अच्छा, एक भूतपूर्व मंत्री से मुलाकात…
नहीं, वह भी शरद का ही है .. मन ही मन शरद को लेकर थोड़ी ईष्र्या भी हुई कि स्साले उसी के व्यंग्य लोगों को याद है।
अब ऐसा है, हमने भी इतने व्यंग्य पढ़ लिए कि याद नहीं रहता कि किसने क्या लिखा, आप लोग लिखते भी एक जैसा हो…, संपादक टाइप के उस व्यक्ति ने थोड़ा खिसियाते हुए कहा।
मैंने कहा, कोई बात नहीं। एक नया व्यंग्य पढ़ लीजिए…, आज के हालात पर है..
संपादक ने सहर्ष व्यंग्य ले लिया। लेकिन पांच मिनट बाद ही बोला- ये क्या है? इसमें तो आप सीधे-सीधे मोदीजी को ही लपेट रहे हो।
हमने तो इंदिरा से लेकर मोरारजी तक सबको लपेटा है। तो फिर मोदी में क्या दिक्कत है…?
सर, पहले का जमाना कुछ और था। आज ऐसा नहीं कर सकते। ये तो बिल्कुल नहीं छाप सकते। इनके खिलाफ तो कोई नहीं छापेगा। किसी को नौकरी गंवानी है क्या?
हम समझ गए। हमने भी समझौता कर लिया। अगले दिन राहुल के खिलाफ लिखकर ले गए। पहले भी हमने कांग्रेस पर काफी लिखा था। तो इस बार तो बिल्कुल भी दिक्कत नहीं हुई। फिर उसी संपादक के कैबिन में पहुंचे। उन्होंने दो-चार-छह लाइनें पढ़ीं। बोले- सर, यह कुछ ज्यादा ही हो गया है।
मैंने कहा – इससे ज्यादा तो मैंने कांग्रेसियों के खिलाफ तब लिखा है जब ये सत्ता में थे। अभी तो ये लोग सत्ता में भी नहीं हैं। आपकी नौकरी नहीं जाएगी।
बहुत तीखा है। कांग्रेसी स्साले बिलबिला जाएंगे। खुदा ना खास्ता कल सत्ता में आ गए तो सबसे पहले हमारी ही गरदन मरोड़ेंगे।
तो हम नहीं लिखे…? थोड़ा निराश होकर हमने पूछा?
नहीं-नहीं सर, आप लिखिए। परसाईजी की आत्मा का लिखा व्यंग्य तो टॉकिंग पॉइंट बन जाएगा। पर थोड़ा बचकर लिखना होगा। आप पॉलिटिकल सब्जेक्ट छोड़ दीजिए…
मैंने कहा- ठीक है। आज के समाज में तो बहुत सारी प्रॉब्लम्स हैं…। कल कुछ और लाता हूं…
फिर मैंने बिल्डर्स पर लिखा…।
नहीं,… पहले ही मार्केट की बारह बजी हुई है। ये छाप दिया तो हमारा धंधा भी ठप हो जाएगा। – संपादक बोला।
शिक्षा माफिया पर लिखा।
सर ये हम छाप ही नहीं सकते। किसी भी कीमत पर नहीं।
डॉक्टर्स पर लिखा।
सर, कई बड़े हॉस्पिटल्स हमारे क्लाइंट्स हैं…, मेरा मालिक मुझे नौकरी से निकाल देगा।
किसानों की प्रॉब्लम्स पर लिखा।
सर, ये तो हमारा टीजी ही नहीं है…। फालतू में आपने टाइम खराब कर दिया।
पंद्रह दिन तक मगजमारी करता रहा…, फिर थक-हारकर मैंने ही पूछ लिया- अब आप ही बता दीजिए, किस पर लिखूं…?
सर, आप कुछ जोक्स क्यों नहीं लिखते? हल्के-फूल्के। खूब चलेंगे। वाट्सएप पर भी खूब शेयर होते हैं। किसी को कोई दिक्कत भी नहीं होगी। लोग पढ़कर और हंसकर भूल जाएंगे.. यह अच्छा रहेगा…
मैं समझ गया कि आज के समाज को अब मेरी कोई जरूरत नहीं है। इसे तो बस जोक्स चाहिए, क्योंकि जोक्स किसी पर सवाल नहीं उठाते। इसलिए मैं वापस जा रहा हूं। मेरी मौत के लिए किसी को जिम्मेदार न माना जाए।
भवदीय
हरिशंकर परसाई की आत्मा
(Disclaimer : आप समझ ही गए होंगे कि यह निरा काल्पनिक आइटम है।)