
दिल्ली के आसमान में जब ‘आत्मा-ए-गब्बर’ से हुई टक्कर…. साथ में थी आत्मा-ए-सांभा भी…
By Jayjeet
इब्नबतूता की आत्मा दिल्ली के आसमान में गहराए काले धुएं वाले बादलों के ऊपर इधर से उधर बेचैन होकर भटक रही है। उसे याद आ रहे हैं वे दिन जब दिल्ली रह-रहकर यूं ही जला करती थी। कभी किसी सुल्तान की यलग़ार में तो कभी किसी बादशाह की हवस में। ये तो पुरानी बातें थीं जब इंसान सभ्यता के दौर से गुजर रहा था। पर आज के इंसान ने तो पता नहीं कितनी तरक्की कर ली है। चांद पर जा चुका है, मंगल के पार जाने की तमन्ना कर रहा है… तो फिर भी ये बस्तियां क्यों जल रही हैं? क्या पिछले 600-700 सालों में कुछ ना बदला? तब भी सिंहासन को बचाने-छीनने के लिए मज़लूम इंसानों की बलि चढ़ाई जाती थीं, आज भी…
इब्नबतूता की आत्मा आज कुछ ज्यादा ही भावुक थी। हालांकि आत्माओं को भावुक होने का कोई नैतिक अधिकार नहीं होता, फिर भी न जाने क्या-क्या उलटे-सीधे नैतिक टाइप के विचार आ-जा रहे थे। उसके विचारों की इस तंद्रा को अचानक आई एक खनखनाती आवाज ने तोड़ दिया- होली कब है, कब है होली…!
इब्नबतूता की आत्मा को ये जानने में जरा भी देर न लगी कि यह भी कोई दूसरी भटकती आत्मा है। वह तुरंत उस दूसरी आत्मा के पास जा पहुंची जो बार-बार पूछ रही थी – होली कब है, कब है होली…!
इब्नबतूता की आत्मा ने उसके कंधे हिलाते हुए पूछा, कौन हो? यहां क्यों भटक रही हो?
दूसरी आत्मा ने एक पल के लिए उसे घूरकर देखा और फिर बोली, ‘यहां से पचास पचास कोस दूर गांव में जब बच्चा रात को रोता है तो मां कहती है बेटे सो जा, नहीं तो गब्बर सिंह की आत्मा आ जाएगी, और तुझे नहीं पता कि मैं कौन हूं?
‘नहीं भाई, तेरी कसम, मुझे वाकई नहीं पता कि तू कौन है’, इब्नबतूता की आत्मा ने धीरे से कहा।
इतना सुनते ही दूसरी आत्मा ने गर्दन को थोड़ा ऊपर किया और बोली – अरे ओ सांभा, इस आत्मा को भी बता कि कितना इनाम रखे है सरकार हम पर?
ऊपर से आवाज आई – पूरे 50 हजार, सरदार…
बतूता की आत्मा ने गर्दन ऊपर करके देखा तो उसे एक सड़े हुए पाइप, जो किसी पुरानी दुनाली से निकला हुआ था, से लटकी एक और आत्मा नज़र आ रही थी। उस तीसरी आत्मा का केवल एक ही काम था कि हर किसी को उस इनाम के बारे में बताना जो सरकार ने सरदार के ऊपर पता नहीं कब रखा था…
‘पर आत्मा-ए-गब्बर, आप यहां दिल्ली के ऊपर इस धुएं में क्या कर रही हो?’ इब्नबतूता की आत्मा ने पूछा।
‘हम हर साल होली के एक सप्ताह पहले रामगढ़ जाती हैं और होली खेलकर वापस अपने नरक लौट आती हैं। पर इस बार इस काले नासपिटे धुएं के चक्कर में हम रास्ता भटक गईं। अब समझ में नहीं आ रहा कि होली खेलने कैसे जाएं…’, आत्मा-ए-गब्बर ने जवाब दिया।
‘पर इस बार तो यहां दिल्ली में होली पहले ही खेल ली गई।… वो देखो जमीं पर लाल-लाल निशान..’ बतूता की आत्मा थोड़ी गंभीरता से बोली।
‘अरे नहीं, वे तो हमारे सरदार की खैनी की पीक के निशान हैं। खैनी खाने की आदत गई नहीं। ये भी ना देखते कि अब स्वच्छता मिशन चल रहा है तो ऊपर से पीक ना मारे……’ सांभा की लटकती आत्मा ने थोड़ा रिस्की दखल दिया।
‘नहीं आत्मा-ए-सांभा, ये खैनी की पीक के नहीं, खून के निशान हैं…। ये भी पता नहीं चल रहा कि हिंदू का खून है कि मुसलमान का…’, भर्राए गले से बतूता की आत्मा बोली।
‘अरे, इतना खून तो हम डाकुओं ने भी नहीं बहाया…। ये हमसे भी बड़े डकैत कौन आ गए..!’ आत्मा-ए-गब्बर की आवाज काले धुएं में गूंज उठी।
इब्ननबतूता की आत्मा ने जानते-बुझते हुए भी चुप्पी साध ली…
‘इस बार मन खट्टा हो गया रे सांभा…। इस बार होली नहीं खेलनी…। और खबरदार सांभा, आज के बाद तुने मुझसे पूछा कि होली कब है…चल अब।’
… और लौट चली गब्बर की आत्मा…।
(जयजीत ख़बरी व्यंग्यकार और ब्लॉग ‘हिंदी सटायर डॉट कॉम’ के संचालक हैं। )