
By Jayjeet
साल 1369 में इब्नबतूता साहब जूते वगैरह यहीं छोड़कर परलोक गमन कर लिए… । जूतों को ढूंढने के लिए उनकी आत्मा तुरंत लौटी भी। कुछ दिन यहां से वहां भटकती रही, पर जूते न मिले सो न मिले। तो फिर वह भी ऊपर जाकर पुन: इब्नबतूता में समां गई। कालांतर में उनके जूतों का इस्तेमाल सर्वेश्वरदयाल जी और गुलज़ार साहब ने बखूबी किया, आप जानते ही हैं…
आज इब्नबतूता की याद हमें क्यों आई? हमें न आई। वह तो खुद इब्नबतूता साहब को दिल्ली की याद आ गई। वे सो रहे थे चादर तानकर कि अचानक न जाने कहां से दिल्ली की सड़कों पर जलते टायरों की कुछ बदबूदार हवा उनकी नाक में घुस गई। इतनी दूर तलक ऊपर तक बदबू! आश्चर्यजनक तो था ही। वे भड़भड़ाकर उठ गए। थोड़ा अनुलोम-विलोम किया तो सांस के साथ बदबू कुछ पेट तक गई। जिस दिल्ली की सल्तनत को छोड़कर वे हिंदुस्तान से बेआबरू होकर लौटे थे, उसी दिल्ली की बू फिर दिलो-दिमाग में छाने लगी। दिल्ली लौटने को बेकरार हो उठे। परमिशन मांगी, पर मिली एक शर्त पर – केवल आत्मा जाएगी, शरीर यहीं रहेगा। इब्नबतूता साहब इस पर भी राजी। अति उत्साह में बतूता साहब ने परलोक में दिए गए उस फार्म पर भी बगैर पढ़े हस्ताक्षर कर दिए जिसमें बहुत ही बारीक अक्षरों में लिखा हुआ था- धरती पर मेरी आत्मा के छलनी होने या उसे मामूली अथवा गंभीर चोट पहुंचने के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार रहूंगा…
तो वह मासूम आत्मा चल पड़ी धरती की ओर…।
धरती से कुछ ऊपर अंतरिक्ष की बॉर्डर पर पहुंची तो आत्मा का दिमाग भन्ना गया। हां, आत्मा दिमाग चुपचाप ले लाई थी।अंतरिक्ष की सीमा पर ढेर सारा कचरा ही कचरा..आत्मा ठिठकी…कुछ समझ पाती, उससे पहले ही किसी पुराने सैटेलाइट से उड़ा चाय का कप भयंकर तेजी से उसके सामने से गुजर गया…धक्क रह गई आत्मा। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि किधर से आगे बढूं। एक डायपर तो उसके मुंह पर ही चिपक गया… फारसी में दो-चार गालियां निकल गईं अपने आप।
‘क्या हुआ?’ उन्हें परेशान देखकर वह भैंसा रुक गया। बताने की जरूरत नहीं, वह यमराज जी का भैंसा था जो पान मसाला लेकर इंडिया से लौट रहा था। भैंसे को दया आ गई और उसे लिफ्ट देकर किसी तरह अंतरिक्ष के कचरे से बाहर निकाला। ‘हिंदुस्तान जा रही हो? खु़दा खैर करें…’ अब भैंसा यह क्यों बोला, इब्नबतूता की आत्मा समझ न सकी।
आत्मा दिल्ली के आसमान में पहुंची। ‘या ख़ुदा, इतना धुआं कैसे? क्या फिर किसी नादिर शाह का कोई हमला-वमला तो नहीं हो गया?’ नादिर शाह की दिल्ली लूट के किस्से इतने कुख्यात थे कि परलोक में इब्नबतूता के पास भी पहुंचे थे और उन्हीं किस्सों में उस लूट की भयावहता को उन्होंने महसूस किया था। पर थोड़ा और नीचे आने पर बतूता साहब की आत्मा को एहसास हो गया कि यह किसी लूट का धुआं नहीं, बल्कि शायद इंसानी करतूतों का नतीजा है। पर उस नादिर शाह की लूट से भी भयावह!!
इब्नबतूता साहब की आत्मा ‘स्मॉग’ नाम के किसी शब्द से परिचित नहीं है। इन 650 सालों में हिंदुस्तान में बहुत कुछ बदल गया है। इब्नबतूता ने अपने जीवन में 75 हजार मील की यात्राएं कर कई चीजों को एक्सप्लोर किया था। उनके लिए एक्सप्लोरेशन नई चीज नहीं है। यही तो उनका धंधा रहा, जब वे धरती पर रहे। तो इस नए हिंदुस्तान में वे क्या नया एक्सप्लोर करेंगे, आने वाले वक्त में पता चलेगा। इस बीच, उनकी आत्मा धुंध के बीच दिल्ली के इंडिया गेट पर लैंड करने जा रही है… कुछ बैंड्स की आवाजें भी आ रही हैं। वे नहीं जानते हैं कि यह इंडिया गेट के पास गणतंत्र दिवस परेड की तैयारियों की गहमागहमी का शोर है। वे तो शायद यह भी नहीं जानते कि हिंदुस्तान अब गणतंत्र हो चुका है, जहां कई तंत्र काम करते हैं।
(अगली बार जानेंगे कि बतूता की आत्मा को दिल्ली उतरते ही सबसे पहले किस तंत्र से रूबरू होना पड़ा… )
(जयजीत ख़बरी व्यंग्यकार और ब्लॉग ‘हिंदी सटायर डॉट कॉम’ के संचालक हैं। )